आवश्यक है विकास कार्यों में लागत नियंत्रण और घोषित लाभों के लिये सजगता

development 3सामान्यतः विकास कार्यों के प्रस्ताव किसी जन समस्या के निदान के लिये बनाए जाते हैं और इनका उद्देश्य प्रासंगिक समस्या का निदान करना होता है। देखा यह जा रहा है कि विकास कार्यों के प्रस्ताव बनाते समय लागत नियंत्रण पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता बल्कि अधिक से अधिक लागत को ही समस्या के निदान का मापदंड मान लिया जाता है। इसी प्रकार योजना पूरी होने पर उसका रखरखाव कम से कम लागत में हो और योजना चिरायु हो कर लंबे समय तक अपेक्षित परिणाम देती रहे इसका भी ध्यान नहीं रखा जाता। फलस्वरूप ऐसी योजनाओं के पूरा होने के कुछ ही समय बाद हम देखते हैं कि भारी भरकम खर्च के बाद भी योजना अपने अपेक्षित परिणाम नहीं दे पा रही है और जन समस्या ज्यों कि त्यों है या और गंभीर हो गई है। सामान्यतः योजना के प्रारंभ होने और पूरी होने के बीच संबंधित अधिकारी बदल जाते हैं और जबाबदेही का निर्धारण नहीं होता है। जनता की याददाश्त भी कमज़ोर होती है और मीडिया में नए नए प्रकरण आ जाने से पुराने प्रकरण धूमिल होते जाते हैं। बदली परिस्थिति में कुछ अर्से बाद इसी समस्या के लिये हम एक और योजना का नाम सुनते हैं जिसकी लागत और भी अधिक होती है। इस बीच जन प्रतिनिधि और नीति निर्माता भी बदल जाते हैं और मूल पुरानी समस्या को नई समस्या मानते हुए इसके निदान के लिये नई योजना को मंजूर कराने का दबाव बनाया जाता है। लेकिन समस्या और विकराल रूप ले लेती हैं और जनता त्रस्त ही रहती है।

उदाहरण के लिये हम उदयपुर की झीलों में गंदगी व अपर्याप्त जल स्तर और पेय जल की किल्लत की समस्या को लें तो हम ये पाते हैं कि यहाँ के नागरिकों को विगत कई दशकों से एक के बाद एक निदान बताए जाते रहे हैं और उन पर करोड़ों रूपयों का व्यय भी हुआ है लेकिन समस्या वहीं की वहीं पर है बल्कि सच कहें तो पहले से बढ़़ी ही है। पहले सन् 1986-87 के सूखे के समय हमें जयसमंद से पानी लाने की योजना को समस्या का निदान बताया गया लेकिन 25 करोड़ रूपये मूल लागत और लगभग 90 लाख रूपये मासिक की बिजली और रखरखाव लागत के बाद भी समस्या का निदान नहीं हुआ। आज हालत यह है कि इस योजना की मोटरों और पंपों को बूढ़ा बताया जा रहा है और पाइप लाइन जगह जगह से रिस रही है। फिर सन् 1997-98 में मानसी वाकल योजना को उदयपुर की सन् 2011 तक की पेय जल की मांग पूरी करने वाली योजना बताया गया लेकिन लगभग 100 करोड़ रूपये की मूल लागत और लगभग 30 लाख रूपये महीने के बिजली व रखरखाव बिल के बावजूद भी पानी तो 48 घंटे में एक बार ही मिल रहा है। अब देवास द्वितीय चरण की योजना को उदयपुर की झीलों को भरे रखने का पक्का इलाज बताया जा रहा है। प्रारंभ में इस योजना की लागत 139 करोड़ रूपये थी जो अगले ही साल में बढ़ कर 370 करोड़ रूपये हो गई। इसके अंर्तगत प्रस्तावित दो बॉंध मार्च 2008 में पूरे होने थे जिनमें से एक तो लगभग पूरा हो गया है लेकिन दूसरा अभी अधूरा है। इस साल (2012) में वर्षा अच्छी हो गई और एक साथ कम दिनों के अंतराल में हुई जिससे आवक अच्छी हुई और झीलें भर गईं तो श्रेय देवास द्वितीय योजना को चला गया। वास्तव में यह योजना कब व कितने रूपये में पूरी होगी यह तो समय ही बतायगा। कहा यह जा रहा है कि इससे न केवल उदयपुर की झीलें भरी रहेंगी बल्कि उदयसागर और वल्लभनगर के बाँध तक पानी पहुँच जायगा। जल दाय विभाग ने तो नाबार्ड से इस योजना के लिये 269 करोड़ रूपये का ऋण लेने के कागज़ातों में इस योजना से 54 गाँवों मे पेजजल भी मुहैया कराने का प्लान बताया है। इस योजना की सुरंग का निकास द्वार सीसारमा नदी मार्ग पर उदयपुर से लगभग 5 किलोमीटर दूर है और इस लंबाई में पानी प्राकृतिक नाले से ही आयगा। यदि झीलों को साल भर भरा रखना है तो पानी का अपवर्तन बरसात के बाद भी, या यों कहें कि गर्मियों में भी करना होगा तो कितना पानी इस प्राकृतिक नाले में रिसेगा और कितना इसके आसपास के खेतों को सींचेगा और शेष कितना पीछोला या फतहसागर में पहुँचेगा यह जानकारी इस योजना की रिपोर्ट में नहीं है। देवास द्वितीय चरण की योजना के अंर्तगत जो दो बाँध बन रहे हैं उन दोनों की सम्मिलित जल संग्रह क्षमता लगभग 110 लाख घनमीटर है जबकि पीछोला और फतहसागर की सम्मिलित जल संग्रह क्षमता लगभग 190 लाख घनमीटर है। ऐसी वास्तविकता को देखते हुए इस योजना के पूरा होने पर 54 गाँवों को पेयजल मिलेगा या उदयपुर की झीलें भरी रहेंगी या उदयसागर और वल्लभनगर तक पानी पहुँचेगा यह भी समय ही बताएगा। सभी झीलें भर गईं फिर भी घरों में नल तो 48 घंटे में एक बार ही आ रहे हैं- यदि पूछेंगे तो कहा जायगा कि ऐसा करने का कारण यह है कि जनता की आदतें ग बिगड़ें ताकि फिर कमी होने पर 48 घंटे में एक बार पानी देने पर परेशानी न हो।

झीलों को आकर्षक बनाए रखने के उद्देश्य ये इसमें गिरने वाले गंदे पानी को रोकने के लिये वर्षों पहले जल दाय विभाग ने एक सीवेज लाइन उदयपुर की गलियों में डाली जिसका रखरखाव नगर परिषद को करना था लेकिन इस लाइन के सही नक्शे तक अब उपलब्ध नहीं है। इसके बाद ‘‘नीरी‘‘ नामक संस्था से कन्सल्टैंसी करा कर एक नई लाइन यू आई टी द्वारा डाली गई जिससे भी झीलों में गंदा पानी गिरना बंद तो नहीं हुआ लेकिन हाथीपोल और दिल्ली दरवाजे पर सीवेज के ओवरफ्लो होने की खबरें आम हो गईं। अब 65 करोड़ रूपयों की सीवर लाइन और हिंदुस्तान ज़िक के सहयोग से मनवाखेड़ा में एक केन्द्रीय सीवेज ट्रीटमेंट प्लान्ट लगाने की योजना बनी है ऐसा जानकारी में आया है। इस योजना में केन्द्रीयकृत सीवेज ट्रीटमेंट प्रणाली प्रस्तावित है जो दुनिया भर में अनुभव किये गए कुपरिणामों जैसे ऊर्जा की अधिक खपत, रखरखाव की ऊँची लागत, पर्यावरण हानि आदि के कारण अब अप्रचलित होती जा रही है।

झीलों के सौंदर्यीकरण के लिये बन रही योजनाओं में स्वीकृति और 70 प्रतिशत धन तो भारत सरकार का है और कार्य राज्य सरकार को कराना है। अभी बड़े जोर शोर से फतहसागर के लिये स्वीकृत हुई 42 करोड़ की सौंदर्यीकरण योजना का गुणगान हो रहा है। इस योजना के खोखलेपन की बानगी यह है कि इसमे 6 करोड़ रूपये की सिल्ट फतेहसागर से निकालने का प्रावधान था जिसका कारण यह बताया गया था कि इससे झील की जल संग्रह क्षमता बढ़ेगी और पानी में न्यूट्रिएंट (नाइट्रेट और फॉसफेट) बहुत ज्यादा हैं जो घटेंगे। योजना के अनुसार 264 हेक्टर के कुल भराव क्षेत्र में से 81 हेक्टर क्षेत्र के जल रहित भाग से एक मीटर गहराई तक सिल्ट निकाली जानी थी। इस आंशिक सफाई से क्या हासिल हुआ यह एक बड़ा प्रश्नचिन्ह है। गौर तलब यह भी है कि फतहसागर में न तो कोई गंदे नाले गिरते हैं न ही सीधा किसी नदी का सिल्ट वाला पानी आता है तो न्यूट्रिएंट कहाँ से ज्यादा हो गए। सिल्ट या तो सिसारमा के रूण में या फिर मदार छोटा और बड़ा में जमती है। इसके बावजूद फतहसागर में जो कुछ भी सिल्ट थी वह श्री लाठी जी के यू आई टी सचिव कार्यकाल में निकाली जा चुकी है।

स्थानीय झीलों के संवर्धन के लिये राजस्थान उच्च न्यायालय ने एक झील प्राधिकरण के निर्देश दे रखे है जो अभी तक क्रियान्वित नहीं हुए हैं। प्रस्ताव ये हैं कि राज्य स्तर जयपुर में एक झील प्राधिकरण बनाया जावे। ऐसा होने पर झील संरक्षण के कामों में स्थानीय जन प्रतिनिधियों और विशेषज्ञों की कोई भूमिका नहीं रहेगी और हर काम जयपुर स्तर से होगा। इस साधारण से काम के लिये लगभग 2 करोड़ रूपयों की कन्सलटैंसी दिल्ली की किसी फर्म को दी गई है। इस राशि से तो राज्य सरकार के 20 अधिकारियों को झील संरक्षण में विश्व स्तर की विशेषज्ञता का प्रशिक्षण दिलवाया जा सकता था जो सरकार के सदा काम आता। उदयपुर में जब सुखाडिया सर्कल का फव्वारा बनाने मन माननीय सुखाडिया सा के समय बना तो उदयपुर के पी डब्ल्यू डी विभाग के एक अभियंता को देश विदेश के फव्वारों की तकनीक देखने भेजा गया और फिर प्राप्त नवीनतम जानकारी के आधार पर उन्होने यह फव्वारा बनाया जो आज भी आकर्षण का एक केन्द्र है।

इस तरह करोड़ो रूपये खर्च करने के बाद भी उदयपुर की जनता लगभग हर विकास योजना में ‘‘फिर वही ढाक के तीन पात‘‘ की स्थिति लंबे समय से भोग रही है। जोधपुर में पेय जल समस्या का निदान ऐसा हुआ कि मरू भूमि के भवनों में हरे भरे लॉन नज़र आते हैं और इनमें बने तहखानों में पानी भरने के मामले सामने आ रहे हैं। बीकानेर की सूर सागर झील, जो गंदे पानी ओर बदबू के लिये बदनाम थी, पूरी तरह से स्वच्छ हो चुकी है। तो आज आवश्यकता इस बात की है कि उदयपुर के सहनशील और सीधे नागरिकों को झूठे वादों और ऊँची ऊँची लागत वाली योजनाओं से निजात मिले और समस्याओं का स्थाई निराकरण हो।

इसके लिये जन प्रतिनिधि ऐसे होने चाहियें जो हर विकास योजना में स्थानीय भागीदारी को प्रोत्साहन दे और उस पर प्रारंभिक अवस्था में ही रचनात्मक चिंतन की व्यवस्था करे। चुनावों में हर पार्टी की तरफ़ से मुख्य मुद्दा विकास का रहता है और विकास का मापदंड इन दिनों धन का प्रावधान माना जाना लगा है यानि कि जन प्रतिनिधि किसी विकास कार्य के लिये जितने अधिक वित्तीय प्रावधान मंजूर करा लेंगे उतने ही अधिक श्रेय लेने के हकदार हो जायंगे।

यह स्थिति बदली जानी आवश्यक है।

– ज्ञान प्रकाश सोनी

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2 Responses to आवश्यक है विकास कार्यों में लागत नियंत्रण और घोषित लाभों के लिये सजगता

  1. D.Derashri says:

    Good effort, U have indicated the problem with reference to Udaipur , but similar conditions exists at all developing towns,
    there is no integrated approach to solve the problem of city sewage polluting the water bodies.
    It is a common phenomina that cities are eating up traditional water bodies and living on fresh waters brought from distances of rural population/farmers share and in turn returning polluted sewage / effluent to the rural area.This way the fresh ground water aquifer of rural area is getting polluted whcih may require heavy investments and a longer period for their revival. this situation requires to be checked immediately otherwise next generation may not find a fresh water aquifer.

    Every planning is done keeping a short term goal in mind which results in wastage of expenditure and failure of effort.
    an unique idea of treating sewage with latest technology developed by IIT mumbai known as SBT ( Soil Bio- Technology) has proved excellance in treating effluent and returning drinkable quality water ( At Frankfurt the drinking water bottles have a mark as recycled twice or thrice ) the water with minimum expenses is far better then the CPT, which cost more and require heavy running expenses.
    A sample SBT is installed at Udaipur Air-Port, this is an environmental friendly treatment plant and looks like a beautiful garden and recycled water is clear is resently used for gardening. it is wrking well for last 3 years. Any one who wants to know more about the technique/ installation of SBT -type sewage treatment plant may contact me.

    At worli -Mumbai ,SBT plant purifyes the city sewage , the municipalties should adopt SBT installation instead of STP/CTP.

    D.D.Derashri

    • admin says:

      Thanks for the comments. You are very correct about the situation of villagers suffering both ways by city water supply and sewage disposal.
      There is an article on this issue on this website – उदयपुर के सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट में हिंदुस्तान ज़िक का सहयोग – कुछ प्रश्न – kindly comment on this also.

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